Sunday, February 22, 2015

Osho या कहें भगवान श्री रजनीश ।


प्रेम और प्रेम में बहुत भेद है, क्योंकि प्रेम बहुत तलों पर अभिव्यक्त हो सकता है। जब प्रेम अपने शुद्धतम रूप में प्रकट होता है--अकारण, बेशर्त--तब मंदिर बन जाता है। और जब प्रेम अपने अशुद्धतम रूप में प्रकट होता है, वासना की भांति, शोषण और हिंसा की भांति, ईष्या-द्वेष की भांति, आधिपत्य, पजेशन की भांति, तब कारागृह बन जाता है।

कारागृह का अर्थ है: जिससे तुम बाहर होना चाहो और हो न सको। कारागृह का अर्थ है: जो तुम्हारे व्यक्तित्व पर सब तरफ से बंधन की भांति बोझिल हो जाए, जो तुम्हें विकास न दे, छाती पर पत्थर की तरह लटक जाए और तुम्हें डुबाेए। कारागृह का अर्थ है: जिसके भीतर तुम तड़फड़ाओ मुक्त होने के लिए और मुक्त न हो सको; द्वार बंद हों, हाथ-पैरों पर जंजीरें पड़ी हों, पंख काट दिए गए हों। कारागृह का अर्थ है: जिसके ऊपर और जिससे पार जाने का उपाय न सूझे।

मंदिर का अर्थ है: जिसका द्वार खुला हो; जैसे तुम भीतर आए हो वैसे ही बाहर जाना चाहो तो कोई प्रतिबंध न हो, कोई पैरों को पकड़े न; भीतर आने के लिए जितनी आजादी थी उतनी ही बाहर जाने की आजादी हो। मंदिर से तुम बाहर न जाना चाहोगे, लेकिन बाहर जाने की आजादी सदा मौजूद है। कारागृह से तुम हर क्षण बाहर जाना चाहोगे और द्वार बंद हो गया! और निकलने का मार्ग न रहा!

मंदिर का अर्थ है: जो तुम्हें अपने से पार ले जाए; जहां से अतिक्रमण हो सके; जो सदा और ऊपर और ऊपर ले जाने की सुविधा दे। चाहे तुम प्रेम में किसी के पड़े हो और प्रारंभ अशुद्ध रहा हो; लेकिन जैसे-जैसे प्रेम गहरा होने लगे वैसे-वैसे शुद्धि बढ़ने लगे। चाहे प्रेम शरीर का आकर्षण रहा हो; लेकिन जैसे ही प्रेम की यात्रा शुरू हो, प्रेम शरीर का आकर्षण न रह कर दो मनों के बीच का खिंचाव हो जाए और यात्रा के अंत-अंत तक मन का खिंचाव भी न रह जाए, दो आत्माओं का मिलन बन जाए।

जिस प्रेम में अंततः तुम्हें परमात्मा का दर्शन हो सके वह तो मंदिर है और जिस प्रेम में तुम्हें तुम्हारे पशु के अतिरिक्त किसी की प्रतीति न हो सके वह कारागृह है। और प्रेम दोनों हो सकता है, क्योंकि तुम दोनों हो। तुम पशु भी हो और परमात्मा भी। तुम एक सीढ़ी हो जिसका एक छोर पशु के पास टिका है और जिसका दूसरा छोर परमात्मा के पास है। और यह तुम्हारे ऊपर निर्भर है कि तुम सीढ़ी से ऊपर जाते हो या नीचे उतरते हो। सीढ़ी एक ही है, उसी सीढ़ी का नाम प्रेम है; सिर्फ दिशा बदल जाएगी। जिन सीढ़ियों से चढ़ कर तुम मेरे पास आए हो उन्हीं सीढ़ियों से उतर कर तुम मुझसे दूर भी जाओगे। सीढ़ियां वही होंगी, तुम भी वही होओगे, पैर भी वही होंगे, पैरों की शक्ति जैसा आने में उपयोग आई है वैसे ही जाने में भी उपयोग होगी, सब कुछ वही होगा; सिर्फ तुम्हारी दिशा बदल जाएगी। एक दिशा थी जब तुम्हारी आंखें ऊपर लगी थीं, आकाश की तरफ और पैर तुम्हारी आँखों का अनुसरण कर रहे थे; दूसरी दिशा होगी, तुम्हारी आँखें जमीन पर लगी होंगी, निचाईयों की तरफ और तुम्हारे पैर उसका अनुसरण कर रहे होंगे।

साधारणतः प्रेम तुम्हें पशु में उतार देता है। इसलिए तो प्रेम से लोग इतने भयभीत हो गए हैं; घृणा से भी इतने नहीं डरते जितने प्रेम से डरते हैं; शत्रु से भी इतना भय नहीं लगता जितना मित्र से भय लगता है। क्योंकि शत्रु क्या बिगाड़ लेगा? शत्रु और तुम में तो बड़ा फासला है, दूरी है। लेकिन मित्र बहुत कुछ बिगाड़ सकता है। और प्रेमी तो तुम्हें बिलकुल नष्ट कर सकता है, क्योंकि तुमने इतने पास आने का अवसर दिया है। प्रेमी तो तुम्हें बिलकुल नीचे उतार सकता है नरकों में। इसलिए प्रेम में लोगों को नरक की पहली झलक मिलती है। इसलिए तो लोग भाग खड़े होते हैं प्रेम की दुनिया से, भगोड़े बन जाते हैं। सारी दुनिया में धर्मों ने सिखाया है: प्रेम से बचो। कारण क्या होगा? कारण यही है कि देखा कि सौ में निन्यानवे तो प्रेम में सिर्फ डूबते हैं और नष्ट होते हैं।

प्रेम की कुछ भूल नहीं है; डूबने वालों की भूल है। और मैं तुमसे कहता हूँ, जो प्रेम में नरक में उतर जाते थे वे प्रार्थना से भी नरक में ही उतरेंगे, क्योंकि प्रार्थना प्रेम का ही एक रूप है। और जो घर में प्रेम की सीढ़ी से नीचे उतरते थे वे आश्रम में भी प्रार्थना की सीढ़ी से नीचे ही उतरेंगे। असली सवाल सीढ़ी को बदलने का नहीं है, न सीढ़ी से भाग जाने का है; असली सवाल तो खुद की दिशा को बदलने का है।

तो मैं तुमसे नहीं कहता हूँ कि तुम संसार को छोड़ कर भाग जाना; क्योंकि भागने वाले कुछ नहीं पाते। सीढ़ी को छोड़ कर जो भाग गया, एक बात पक्की है कि वह नरक में नहीं उतर सकेगा; लेकिन दूसरी बात भी पक्की है कि स्वर्ग में कैसे उठेगा? तुम खतरे में जीते हो, संन्यासी सुरक्षा में; नरक में जाने का उसका उपाय उसने बंद कर दिया। लेकिन साथ ही स्वर्ग जाने का उपाय भी बंद हो गया। क्योंकि वे एक ही सीढ़ी के दो नाम हैं। संन्यासी, जो भाग गया है संसार से, वह तुम्हारे जैसे दुःख में नहीं रहेगा, यह बात तय है; लेकिन तुम जिस सुख को पा सकते थे, उसकी संभावना भी उसकी खो गई। माना कि तुम नरक में हो, लेकिन तुम स्वर्ग में हो सकते हो--और उसी सीढ़ी से जिससे तुम नरक में उतरे हो। सौ में निन्यानबे लोग नीचे की तरफ उतरते हैं, लेकिन यह कोई सीढ़ी का कसूर नहीं है; यह तुम्हारी ही भूल है।

और स्वयं को न बदल कर सीढ़ी पर कसूर देना, स्वयं की आत्मक्रांति न करके सीढ़ी की निंदा करना बड़ी गहरी नासमझी है। अगर सीढ़ी तुम्हें नरक की तरफ उतार रही है तो पक्का जान लेना कि यही सीढ़ी तुम्हें स्वर्ग की तरफ उठा सकेगी। तुम्हें दिशा बदलनी है, भागना नहीं है। क्या होगा? दिशा का रूपांतरण !

जब तुम किसी को प्रेम करते हो--वह कोई भी हो, माँ हो, पिता हो, पत्नी हो, प्रेयसी हो, मित्र हो, बेटा हो, बेटी हो, कोई भी हो--प्रेम का गुण तो एक है; किससे प्रेम करते हो, यह बड़ा सवाल नहीं है। जब भी तुम प्रेम करते हो तो दो संभावनाएं हैं। एक तो यह कि जिसे तुम प्रेम करना चाहते हो, या जिसे तुम प्रेम करते हो, उस पर तुम प्रेम के माध्यम से आधिपत्य करना चाहो, मालकियत करना चाहो। तुम नरक की तरफ उतरने शुरू हो गए। प्रेम जहां पजेशन बनता है, प्रेम जहां परिग्रह बनता है, प्रेम जहां आधिपत्य लाता है, प्रेम न रहा; यात्रा गलत हो गई। जिसे तुमने प्रेम किया है, उसके तुम मालिक बनना चाहो; बस भूल हो गई। क्योंकि मालिक तुम जिसके भी बन जाते हो, तुमने उसे ग़ुलाम बना दिया। और जब तुम किसी को ग़ुलाम बनाते हो तो याद रखना, उसने भी तुम्हें ग़ुलाम बना दिया। क्योंकि गुलामी एकतरफा नहीं हो सकती; वह दोधारी धार है। जब भी तुम किसी को ग़ुलाम बनाओगे, तुम भी उसके ग़ुलाम बन जाओगे। यह हो सकता है कि तुम छाती पर ऊपर बैठे होओ और वह नीचे पड़ा है; लेकिन न तो वह तुम्हें छोड़ कर भाग सकता है, न तुम उसे छोड़ कर भाग सकते हो। गुलामी पारस्परिक है। तुम भी उससे बंध गए हो जिसे तुमने बांध लिया। बंधन कभी एकतरफा नहीं होता। अगर तुमने आधिपत्य करना चाहा तो दिशा नीचे की तरफ शुरू हो गई। जिसे तुम प्रेम करो उसे मुक्त करना; तुम्हारा प्रेम उसके लिए मुक्ति बने। जितना ही तुम उसे मुक्त करोगे, तुम पाओगे कि तुम मुक्त होते चले जा रहे हो, क्योंकि मुक्ति भी दोधारी तलवार है। तुम जब अपने निकट के लोगों को मुक्त करते हो तब तुम अपने को भी मुक्त कर रहे हो; क्योंकि जिसे तुमने मुक्त किया, उसके द्वारा तुम्हें ग़ुलाम बनाए जाने का उपाय नष्ट कर दिया तुमने। जो तुम देते हो वही तुम्हें उत्तर में मिलता है। जब तुम गाली देते हो तब गालियों की वर्षा हो जाती है। जब तुम फूल देते हो तब फूल लौट आते हैं। संसार तो प्रतिध्वनि करता है। संसार तो एक दर्पण है जिसमें तुम्हें अपना ही चेहरा हजार-हजार रूपों में दिखाई पड़ता है।

जब तुम किसी को ग़ुलाम बनाते हो तब तुम भी ग़ुलाम बन रहे हो; प्रेम कारागृह बनने लगा! यह मत सोचना कि दूसरा तुम्हें कारागृह में डालता है। दूसरा तुम्हें कैसे डाल सकता है? दूसरे की सामर्थ्य क्या? तुम ही दूसरे को कारागृह में डालते हो तब तुम कारागृह में पड़ते हो; यह साझेदारी है। तुम उसे ग़ुलाम बनाते हो; वह तुम्हें ग़ुलाम बनाता है। पति-पत्नियों को देखो, वे एक-दूसरे के ग़ुलाम हो गए हैं। और स्वभावतः, जो तुम्हें ग़ुलाम बनाता है उसे तुम प्रेम कैसे कर पाओगे? भीतर गहरे में रोष होगा, क्रोध होगा; गहरे में प्रतिशोध का भाव होगा। और वह हजार-हजार ढंग से प्रकट होगा; छोटी-छोटी बात में प्रकट होगा। क्षुद्र-क्षुद्र बातों में पति-पत्नियों को तुम लड़ते पाओगे। प्रेमियों को तुम ऐसी क्षुद्र बातों पर लड़ते पाओगे कि यह तुम मान ही नहीं सकते कि इनके जीवन में प्रेम उतरा होगा। प्रेम जैसी महा घटना जहां घटी हो वहाँ ऐसी क्षुद्र बातों की कलह उठ सकती है? यह क्षुद्र बातों की कलह बता रही है कि सीढ़ी नीचे की तरफ लग गई है।

जब भी तुम किसी पर आधिपत्य करना चाहोगे, तुमने प्रेम की हत्या कर दी। प्रेम का शिशु पैदा भी न हो पाया, गर्भपात हो गया; अभी जन्मा भी न था कि तुमने गर्दन दबा दी।

प्रेम खिलता है मुक्ति के आकाश में; प्रेम का जन्म होता है स्वतंत्रता के परिवेश में। कारागृह में प्रेम का जन्म नहीं होता; वहां तो प्रेम की कब्र बनती है। और जब तुम दूसरे पर आधिपत्य करोगे तब तुम धीरे-धीरे पाओगे, प्रेम तो न मालूम कहां तिरोहित हो गया और प्रेम की जगह कुछ बड़ी विकृतियां छूट गईं-ईर्ष्या। जब तुम दूसरे पर आधिपत्य करोगे तब ईष्या पैदा हो जाएगी।

अगर तुम्हारी पत्नी किसी के साथ थोड़ी हंस कर भी बोल रही है; प्राण कंपित हो गए। यह तो पत्नी तुम्हारे कारागृह के बाहर जाने के लिए कोई झरोखा बना रही है। यह तो सेंध मालूम पड़ती है; दीवाल तोड़ कर बाहर निकलने का उपाय है। तुम्हारी पत्नी और किसी और के साथ हंसे? तुम्हारी पत्नी और किसी और से बात करे? तुम्हारा पति किसी और स्त्री के सौंदर्य का गुणगान करे? नहीं, यह असंभव है। क्योंकि यह तो प्रथम से ही खतरा है। यह तो स्वतंत्र होने की चेष्टा है। इसको पहले ही प्रेमी मार डालते हैं। र् ईष्या का जन्म होता है।

और ध्यान रखना, अगर तुम एक स्त्री को प्रेम करते हो तो वस्तुतः उस स्त्री के द्वारा तुम सभी स्त्रियों को प्रेम करते हो। वह स्त्री प्रतिनिधि है, वह प्रतीक है। उस स्त्री में तुमने स्त्रैणता को प्रेम किया है। जब तुम किसी एक पुरुष को प्रेम करते हो तो उस पुरुष में तुमने सारे जगत के पुरुषों को प्रेम कर लिया जो आज मौजूद हैं, जो कभी मौजूद थे, जो कभी मौजूद होंगे। व्यक्तित्व तो ऊपर-ऊपर है, भीतर तो शुद्ध ऊर्जा है पुरुष होने की या स्त्री होने की। जब तुम एक स्त्री के सौंदर्य का गुणगान करते हो तब यह कैसे हो सकता है कि सौंदर्य को परखने वाली ये आंखें राह से गुजरती दूसरी स्त्री को, जब वह सुंदर हो, तो उसमें सौंदर्य न देखें? यह कैसे हो सकता है? यह तो असंभव है। लेकिन इस सौंदर्य के देखने में कुछ पाप नहीं है। यह कैसे हो सकता है कि जब तुमने एक दीये में रोशनी देखी और आह्लादित हुए तो दूसरे दीये में रोशनी देख कर तुम आह्लादित न हो जाओ?

लेकिन एक स्त्री कोशिश करेगी कि तुम्हें अब सौंदर्य कहीं और दिखाई न पड़े। और एक पुरुष कोशिश करेगा, अब स्त्री को यह सारा संसार पुरुष से शून्य हो जाए, बस मैं ही एक पुरुष दिखाई पडूं। तब एक बड़ी संकटपूर्ण स्थिति पैदा होती है। स्त्री कोशिश में लग जाती है इस पुरुष को कहीं कोई सुंदर स्त्री दिखाई न पड़े। धीरे-धीरे यह पुरुष अपनी संवेदनशीलता को मारने लगता है, क्योंकि संवेदनशीलता रहेगी तो सौंदर्य दिखाई पड़ेगा। सौंदर्य का किसी ने ठेका नहीं लिया है; जहां होगा वहां दिखाई पड़ेगा। और अगर प्रेम स्वतंत्र हो तो हर जगह हर सौंदर्य में इस व्यक्ति को अपनी प्रेयसी दिखाई पड़ेगी और प्रेम गहरा होगा।

लेकिन स्त्री काटेगी संवेदनशीलता को; पुरुष काटेगा स्त्री की संवेदनशीलता को; दोनों एक-दूसरे की संवेदना को मार डालेंगे। और जब पुरुष को कोई भी स्त्री सुंदर नहीं दिखाई पड़ेगी तो तुम सोचते हो घर में जो स्त्री बैठी है वह सुंदर दिखाई पड़ेगी? वह सबसे ज्यादा कुरूप स्त्री हो जाएगी। उसी के कारण सौंदर्य का बोध ही मर गया। तो तुम सोचते हो जिस स्त्री को कोई पुरुष सुंदर दिखाई न पड़ेगा उसे घर का पुरुष सुंदर दिखाई पड़ेगा? जब पुरुष ही सुंदर नहीं दिखाई पड़ते तो इस भीतर का जो पुरुषत्व है वह भी अब आकर्षण नहीं लाता।

तुम ऐसा ही समझो कि तुमने तय कर लिया हो कि तुम जिस स्त्री को प्रेम करते हो, बस उसके पास ही श्वास लोगे, शेष समय श्वास बंद रखोगे। और तुम्हारी स्त्री कहे कि देखो, तुम और कहीं श्वास मत लेना! तुमने खुद ही कहा है कि तुम्हारा जीवन बस तेरे लिए है। तो जब मेरे पास रहो, श्वास लेना; जब और कहीं रहो तो श्वास बंद रखना। तब क्या होगा? अगर तुमने यह कोशिश की तो दुबारा जब तुम इस स्त्री के पास आओगे तुम लाश होओगे, जिंदा आदमी नहीं। और जब तुम और कहीं श्वास न ले सकोगे तो तुम सोचते हो इस स्त्री के पास श्वास ले सकोगे? तुम मुर्दा हो जाओगे।

ऐसे प्रेम कारागृह बनता है। प्रेम बड़े आश्वासन देता है--और आश्वासनों को पूरा कर सकता है--लेकिन वे पूरे हो नहीं पाते। इसलिए हर व्यक्ति प्रेम के विषाद से भर जाता है। क्योंकि प्रेम ने बड़े सपने दिए थे, बड़े इंद्रधनुष निर्मित किए थे, सारे जगत के काव्य का वचन दिया था कि तुम्हारे ऊपर वर्षा होगी; और जब वर्षा होती है तो तुम पाते हो कि वहां न तो कोई काव्य है, न कोई सौंदर्य; सिवाय कलह, उपद्रव, संघर्ष, क्रोध, ईष्या, वैमनस्य के सिवाय कुछ भी नहीं। तुम गए थे किसी व्यक्ति के साथ स्वतंत्रता के आकाश में उड़ने; तुम पाते हो कि पंख कट गए। तुम गए थे स्वतंत्रता की सांस लेने; तुम पाते हो गर्दन घुट गई।

प्रेम फांसी बन जाता है सौ में निन्यानबे मौके पर; लेकिन प्रेम के कारण नहीं, तुम्हारे कारण। तुम्हारे धर्मगुरुओं ने कहा है, प्रेम के कारण। वहां मेरा फर्क है। और तुम्हारे धर्मगुरु तुम्हें ज्यादा ठीक मालूम पड़ेंगे, क्योंकि जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर से उठा रहे हैं वे। वे कह रहे हैं, यह प्रेम का ही उपद्रव है; पहले ही कहा था कि पड़ना ही मत इस उपद्रव में, दूर ही रहना। तो तुम्हारे धर्मगुरु प्रेम की निंदा करते रहे हैं। तुम्हें भी जँचती है बात; जँचती है इसलिए कि तुम्हारे धर्मगुरु तुम्हें दोषी नहीं ठहराते, प्रेम को दोषी ठहराते हैं। मन हमेशा राजी है, दोष किसी और पर जाए; तुम हमेशा प्रसन्न हो। मैं तुम्हें दोषी ठहराता हूँ, सौ प्रतिशत तुम्हें दोषी ठहराता हूँ। प्रेम की जरा भी भूल नहीं है। और प्रेम अपने आश्वासन पूरे कर सकता था। तुमने पूरे न होने दिए; तुमने गर्दन घोंट दी। सीढ़ी ऊपर ले जा सकती थी; तुम नीचे जाने लगे। नीचे जाना आसान है; ऊपर जाना श्रमसाध्य है। प्रेम साधना है। और प्रेम को कारागृह बनाना ऐसे ही है जैसे पत्थर पहाड़ से नीचे की तरफ लुढ़क रहा हो; जमीन की कशिश ही उसे खींचे लिए जाती है।

ये दोनों यात्राएं समान नहीं हैं, क्योंकि ऊपर जाने में तुम्हें बदलना पड़ेगा। क्योंकि ऊपर जाना है तो ऊपर जाने के योग्य होना पड़ेगा; प्रतिपल तुम्हारे चेतना के तल को ऊपर उठना पड़ेगा, तभी तुम सीढ़ी पार कर सकोगे। नीचे गिरने में तो कुछ भी नहीं करना पड़ता।

मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटों के लिए एक साईकिल खरीद लाया था। दो बेटे। तो उसने कहा कि दोनों आधा-आधा साईकिल से खेलना; कोई झगड़ा खड़ा न हो। एक दिन उसने देखा कि बड़ा बेटा बार-बार ऊपर टेकरी पर जाता है और वहां से साईकिल पर बैठ कर नीचे आता है। कई बार उसे टेकरी से साईकिल पर बैठे हुए देखा। तो उसने बुला कर कहा कि मैंने कहा था, छोटे बेटे को भी आधा-आधा। उसने कहा, आधा ही आधा कर रहे हैं। छोटा बेटा ऊपर की तरफ ले जाता है साईकिल; हम ऊपर से नीचे की तरफ लाते हैं--आधा-आधा। अब पहाड़ी पर साईकिल को ले जाना, चढ़ने का तो सवाल ही नहीं। किसी तरह हाँफता हुआ छोटा बेटा ऊपर तक पहुंचा देता है। और बड़ा बेटा उस पर बैठ कर नीचे की यात्रा कर लेता है। समान नहीं है; आधी-आधी नहीं है यात्रा। नीचे की यात्रा यात्रा ही नहीं है; गिरना है, पतन है; तुम जहां थे वहां से भी नीचे उतरना है।

तो जो व्यक्ति प्रेम को ईष्या, आधिपत्य, पजेशन बना लेगा, वह जल्दी ही पाएगा, प्रेम तो खो गया; आग तो खो गई प्रेम की, आंखों को अंधा करने वाला धुआं छूट गया है। घाटी के अंधकार में जीने लगा, पहाड़ की ऊँचाई तो खो गई और पहाड़ की ऊँचाई से दिखने वाले सूर्योदय-सूर्यास्त सब खो गए। अंधी घाटी है; और रोज अंधी होती चली जाती है। तुम्हारे भीतर का पशु प्रकट हो जाता है सरलता से; उसके लिए कोई साधना नहीं करनी पड़ती। जिसको प्रेम को ऊपर ले जाना है, उसे प्रेम को तो वैसे ही साधना होगा जैसे कोई योग को साधता है। क्योंकि दोनों ऊपर जा रहे हैं; तब साधना शुरू हो जाती है। प्रेम तप है; जैसे कोई तप को साधता है वैसे ही प्रेम की तपश्चर्या है। और तप इतना बड़ा तप नहीं है, क्योंकि तुम अकेले होते हो। प्रेम और भी बड़ा तप है, क्योंकि एक दूसरा व्यक्ति भी साथ होता है। तुम्हें अकेले ही ऊपर नहीं जाना है; एक दूसरे व्यक्ति को भी हाथ का सहारा देना है, ऊपर ले जाना है। कई बार दूसरा बोझिल मालूम पड़ेगा। कई बार दूसरा ऊपर जाने को आतुर न होगा, इनकार करेगा। कई बार दूसरा नीचे उतर जाने की आकांक्षा करेगा। लेकिन अगर हृदय में प्रेम है तो तुम दूसरे को भी सहारा दोगे, सम्हालोगे; उसे नीचे न गिरने दोगे। तुम्हारा हाथ करुणा न खोएगा; तुम्हारा प्रेम जल्दी ही क्रोध में न बदलेगा। कई बार तुम्हें धीमे भी चलना पड़ेगा, क्योंकि दूसरा साथ चल रहा है। तुम दौड़ न सकोगे। इसलिए मैं कहता हूँ, तप इतना बड़ा तप नहीं है; क्योंकि तप में तो तुम अकेले हो, जब चाहो दौड़ सकते हो। प्रेम और भी बड़ा तप है।

लेकिन प्रेम के द्वार पर तो तुम ऐसे पहुँच जाते हो जैसे तुम तैयार ही हो। यहीं भूल हो जाती है। दुनिया में हर आदमी को यह खयाल है कि प्रेम करने के योग्य तो वह है ही। यहीं भूल हो जाती है। और सब तो तुम सीखते हो, छोटी-छोटी चीजों को सीखने में बड़े जीवन का समय गंवाते हो। प्रेम को तुमने कभी सीखा? प्रेम को कभी तुमने सोचा? प्रेम को कभी तुमने ध्यान दिया? प्रेम क्या है? तुम ऐसा मान कर बैठे हो कि जैसे प्रेम को तुम जानते ही हो। तुम्हारी ऐसी मान्यता तुम्हें नीचे उतार देगी, तुम्हें नरक की तरफ ले जाएगी। प्रेम सबसे बड़ी कला है। उससे बड़ा कोई ज्ञान नहीं है। सब ज्ञान उससे छोटे हैं। क्योंकि और सब ज्ञान से तो तुम जान सकते हो बाहर-बाहर से; प्रेम में ही तुम अंतर्गृह में प्रवेश करते हो। और परमात्मा अगर कहीं छिपा है तो परिधि पर नहीं, केंद्र में छिपा है।

और एक बार जब तुम एक व्यक्ति के अंतर्गृह में प्रवेश कर जाते हो तो तुम्हारे हाथ में कला आ जाती है; वही कला सारे अस्तित्व के अंतर्गृह में प्रवेश करने के काम आती है। तुमने अगर एक को प्रेम करना सीख लिया तो तुम उस एक के द्वारा प्रेम करने की कला सीख गए। वही तुम्हें एक दिन परमात्मा तक पहुंचा देगी।

इसलिए मैं कहता हूँ कि प्रेम मंदिर है। लेकिन तैयार मंदिर नहीं है। एक-एक कदम तुम्हें तैयार करना पड़ेगा। रास्ता पहले से पटा-पटाया तैयार नहीं है, कोई राजपथ है नहीं कि तुम चल जाओ। चलोगे एक-एक कदम और चल-चल कर रास्ता बनेगा--पगडंडी जैसा। खुद ही बनाओगे, खुद ही चलोगे। इसलिए मैं प्रेम के विरोध में नहीं हूँ, मैं प्रेम के पक्ष में हूँ। और तुमसे मैं कहना चाहूंगा कि अगर प्रेम ने तुम्हें दुःख में उतार दिया हो तो अपनी भूल स्वीकार करना, प्रेम की नहीं। क्योंकि बड़ा खतरा है अगर तुमने प्रेम की भूल स्वीकार कर ली। तो यह मैं जानता हूँ कि तुम साधु-संतों की बातों में पड़ कर छोड़ दे सकते हो प्रेम का मार्ग, क्योंकि वहां तुमने दुःख पाया है। तुम थोड़े सुखी भी हो जाओगे; लेकिन आनंद की वर्षा तुम पर फिर कभी न हो पाएगी। कैसे तुम चढ़ोगे? तुम सीढ़ी ही छोड़ आए! गिरने के डर से तुम सीढ़ी से ही उतर आए। चढ़ोगे कैसे? गिरोगे नहीं, यह तो पक्का है।

जिसको हम सांसारिक कहते हैं, गृहस्थ कहते हैं, वह गिरता है सीढ़ी से; जिसको हम संन्यासी कहते हैं पुरानी परंपरा-धारणा से, वह सीढ़ी छोड़ कर भाग गया। मैं उसको संन्यासी कहता हूँ जिसने सीढ़ी को नहीं छोड़ा; अपने को बदलना शुरू किया और जिसने प्रेम से ही, प्रेम की घाटी से ही धीरे-धीरे प्रेम के शिखर की तरफ यात्रा शुरू की।

कठिन है। जीवन की संपदा मुफ्त नहीं मिलती; कुछ चुकाना पड़ेगा; अपने से ही पूरा चुकाना पड़ेगा; अपने को ही दांव पर लगाना पड़ेगा। और प्रेम जितनी कसौटी मांगता है, कोई चीज कसौटी नहीं मांगती। इसलिए कमजोर भाग जाते हैं। और भाग कर कोई कहीं नहीं पहुँचता। प्रेम के द्वार से गुजरना ही होगा। हां, उसके पार जाना है, वहीं रुक नहीं जाना है। वह सिर्फ द्वार है। जापान में एक मंदिर है--वैसे ही सब मंदिर होने चाहिए--वह मंदिर सिर्फ एक द्वार है। उसमें कोई दीवाल नहीं है और भीतर कुछ भी नहीं है; सिर्फ एक द्वार है।

मंदिर एक द्वार है; किसी अज्ञात लोक की तरफ खुलता है; अतीत पीछे छूट जाता है, भविष्य की तरफ खुलता है; समय पीछे छूट जाता है, कालातीत की तरफ खुलता है; क्षुद्र, क्षणभंगुर पीछे छूट जाता है, शाश्वत के प्रति खुलता है। लेकिन सिर्फ एक द्वार है। जो मंदिर में रुक गया वह नासमझ है। मंदिर कोई रुकने की जगह नहीं; पड़ाव कर लेना, रात भर के लिए विश्राम कर लेना, लेकिन सुबह यात्रा पर निकल जाना है।

प्रेम को कैसे मंदिर बनाओगे? आधिपत्य मत करना जिससे प्रेम करो। जिससे प्रेम करो उस प्रेम के आस-पासर् ईष्या को खड़े मत होने देना। जिसको प्रेम करो उससे अपेक्षा मत करना कुछ; दे सको, देना, मांगना मत। और तुम पाओगे, प्रेम रोज गहरा होता है, रोज ऊपर उठता है। और तुम पाओगे कि धीरे-धीरे, धीरे-धीरे नये पंख उगने लगे तुम्हारे जीवन में; चेतना नयी यात्रा पर जाने के लिए समर्थ होने लगी। लेकिन इन भूलों के प्रति सजग रहना। ये भूलें बिलकुल सामान्य हैं और तुम प्रेम में पड़ते भी नहीं कि ये भूलें शुरू हो जाती हैं। तुम अपेक्षा शुरू कर देते हो। जहां अपेक्षा की वहां सौदा शुरू हो गया; प्रेम न रहा।

तुम जिसको प्रेम करो, उसे स्वयं होने की पूरी स्वतंत्रता देना। कई बार मौके होंगे, बहुत सी बातें होंगी जो तुम न चाहोगे। लेकिन तुम्हारी चाह का सवाल क्या है? दूसरा व्यक्ति पूरा व्यक्ति है अपनी निजता में; तुम हो कौन? वह जैसा है तुम उसे प्रेम करने के अधिकारी हो, लेकिन तुम उसे काट-छांट मत करना। तुम यह मत कहना कि तू ऐसा हो जा, तब हम तुझे प्रेम करेंगे। एक महिला मेरे पास आती है। प्रेम-विवाह किया था; लेकिन एक छोटी सी बात पर सब नष्ट हो गया कि पति सिगरेट पीते हैं। वह यह बरदाश्त नहीं कर सकती; उनके मुंह से बास आती है। रात उनके साथ सो नहीं सकती; दूसरे कमरे में पति सोते हैं। बीस साल इस छोटी सी बात की कलह में बीत गए हैं कि पति पर जिद्द है कि वह सिगरेट छोड़े। पति की भी जिद्द है कि पत्नी चाहे छूट जाए, सिगरेट नहीं छूट सकती। और दोनों प्रेम में थे और माँ-बाप के विरोध में शादी की थी। शादी बड़ी मुश्किल थी; दोनों अलग-अलग जाति के हैं, अलग धर्मों के हैं। दोनों के परिवार विरोध में थे। सब दांव पर लगा कर शादी की थी और सब दांव सिगरेट पर लग गया। मैंने उन्हें कहा, तुम कभी यह भी तो सोचो कि तुमने किस छोटी सी बात के लिए सब खो दिया है! लेकिन अहंकार प्रबल है। और पत्नी कहती है कि मैं अपनी शर्त से नीचे उतरने को राजी नहीं हूँ। बीस साल गए और जिंदगी चली जाएगी।

लेकिन जब तुम किसी एक व्यक्ति को प्रेम करते हो, समझ लो उसे पायरिया हो जाए तो क्या करोगे? उसके मुंह से थोड़ी बास आने लगे तो क्या करोगे? क्या प्रेम इतना छोटा है कि उतनी सी बास न झेल सकेगा? समझो कि कल वह आदमी बीमार हो जाए, लंगड़ा-लूला हो जाए, बिस्तर से लग जाए, तो तुम क्या करोगे? कल बूढ़ा होगा, शरीर कमजोर होगा, तो तुम क्या करोगे? प्रेम बेशर्त है। प्रेम सभी सीमाओं को पार करके मौजूद रहेगा--सुख में, दुःख में, जवानी में, बुढ़ापे में।

सिगरेट को पत्नी नहीं झेल पाती। प्रेम सिगरेट से छोटा मालूम पड़ता है, सिगरेट बड़ी मालूम पड़ती है। उसके लिए प्रेम खोने को राजी है, लेकिन प्रेम के लिए सिगरेट की बास झेलने को राजी नहीं है। पति पत्नी से दूर रहने को राजी है, लेकिन सिगरेट छोड़ने को राजी नहीं है। धुआं बाहर-भीतर लेना ज्यादा मूल्यवान मालूम पड़ता है, पत्नी कौड़ी की मालूम पड़ती है। यह कैसा प्रेम है? लेकिन अक्सर सभी प्रेम इसी जगह अटके हैं। सिगरेट की जगह दूसरे बहाने होंगे, दूसरी खूंटियां होंगी; लेकिन अटके हैं।

अगर तुमने चाहा कि दूसरा ऐसा व्यवहार करे जैसा मैं चाहता हूँ; बस तुमने प्रेम के जीवन में विष डालना शुरू कर दिया। और जैसे ही तुम यह चाहोगे, दूसरा भी अपेक्षाएं शुरू कर देगा। तब तुम एक-दूसरे को सुधारने में लग गए। प्रेम किसी को सुधारता नहीं। यद्यपि प्रेम के माध्यम से आत्मक्रांति हो जाती है, लेकिन प्रेम किसी को सुधारने की चेष्टा नहीं करता। सुधार घटता है, सुधार अपने से होता है। जब तुम किसी को आपूर प्रेम करते हो, इतना प्रेम करते हो जितना कि तुम्हारे प्राण कर सकते हैं, रत्ती भर बाकी नहीं रखते, तो क्या प्रेमी में इतनी समझ न आ सकेगी तुम्हारे इतने प्रेम के बाद भी कि सिगरेट छोड़ दे? इतनी समझ न आ सकेगी इतने बड़े प्रेम के बाद? तब तो प्रेम बहुत नपुंसक है। और प्रेम नपुंसक नहीं है; प्रेम से बड़ी कोई शक्ति नहीं है। तुम्हारा प्रेम ही छुड़ा देगा। लेकिन अपेक्षा मत करना। अपेक्षा की कि घाटी की तरफ तुम उतरने लगे। अपेक्षा की और सुधारना चाहा कि बस मुसीबत हो गई।

छोटे-छोटे बच्चे तुम्हारे घर में पैदा होंगे। उनको तुम प्रेम करते हो, लेकिन प्रेम से ज्यादा उनकी सुधार की चिंता बनी रहती है। बस उसी सुधार में तुम्हारा प्रेम मर जाता है। कोई बच्चा अपने माँ-बाप को कभी माफ नहीं कर पाता, नाराजगी आखिर तक रहती है। पैर भी छू लेता है, क्योंकि उपचार है, छूना पड़ता है; लेकिन भीतर? भीतर माँ-बाप दुश्मन ही मालूम होते रहते हैं। क्योंकि ऐसी छोटी-छोटी चीजों पर उन्होंने बच्चे को सुधारने की कोशिश की। बच्चे को क्या समझ में आता है? उसे समझ में आता है कि जैसा मैं हूँ वैसा प्रेम के योग्य नहीं; जैसा मैं हूँ उतना काफी नहीं; जैसा मैं हूँ उसको काटना-पीटना, बनाना पड़ेगा, तब प्रेम के योग्य हो पाऊंगा। बच्चे को इसमें निंदा का स्वर मालूम पड़ता है। निंदा का स्वर है।

ध्यान रखना, प्रेम सिर्फ प्रेम करता है, किसी को सुधारना नहीं चाहता। और प्रेम बड़े सुधार पैदा करता है। प्रेम की छाया में बड़ी क्रांतियां घटती हैं। अगर माँ-बाप ने बच्चे को सच में प्रेम किया है, बस काफी है। बस काफी है, उतना प्रेम ही उसे सम्हालेगा; उतना प्रेम ही उसे गलत जाने से रोकेगा; उतना प्रेम ही, जब भी वह राह से नीचे उतरने लगेगा, मार्ग में बाधा बन जाएगा। याद आएगी माँ की, पिता की, उनके प्रेम की--और उनके बेशर्त प्रेम की--बच्चे के पैर पीछे लौट आएंगे।

लेकिन तुम प्रेम नहीं करते, तुम सुधारते हो। जब तुम सुधारते हो तब तुम्हारे सुधारने की आकांक्षा ही बच्चे के पैरों को गलत मार्ग पर जाने का आकर्षण बन जाती है। बच्चे झूठ बोलेंगे, सिगरेट पीएंगे, गालियां बकेंगे, अभद्रता करेंगे, सिर्फ इसलिए कि तुम सुधारना चाहते हो। तुम उनके अहंकार को चोट पहुंचा रहे हो। वे भी अहंकार से उत्तर देंगे। एक संघर्ष शुरू हो गया। और संघर्ष बड़ा मूल्यवान है, क्योंकि माँ-बाप से बच्चों को पहली दफा प्रेम की खबर मिलती थी, वह विषाक्त हो गई।

जो लड़का अपनी माँ को प्रेम नहीं कर सका, वह किसी स्त्री को कभी प्रेम नहीं कर पाएगा, हमेशा अड़चन खड़ी होगी। क्योंकि हर स्त्री में कहीं न कहीं छिपी माँ मौजूद है। हर जगह हर स्त्री माँ है। माँ होना स्त्री का गहरा स्वभाव है। छोटी सी बच्ची भी पैदा होती है तो वह माँ की तरह ही पैदा होती है। इसलिए गुड्डियों को लगा लेती है बिस्तर से और सम्हालने लगती है, घर-गृहस्थी बसाने लगती है।

मुल्ला नसरुद्दीन की पत्नी बाहर गई थी। और छोटी लड़की ने, जिसकी उम्र केवल सात साल है, उस दिन भोजन की टेबल पर सारा कार्यभार सम्हाल लिया था और बड़ी गुरु-गंभीरता से एक प्रौढ़ स्त्री का काम अदा कर रही थी। लेकिन उससे छोटा बच्चा पांच साल का, उसे यह बात न जंच रही थी। तो उसने कहा कि अच्छा मान लिया, मान लिया कि तुम माँ हो, लेकिन मेरे एक सवाल का जवाब दो कि सात में सात का गुणा करने से कितने होते हैं? उस लड़की ने गंभीरता से कहा, मैं काम में उलझी हूँ, तुम डैडी से पूछो।

छोटी सी बच्ची! लेकिन हर लड़की माँ पैदा होती है और हर पुरुष अंतिम जीवन के क्षण तक भी छोटा बच्चा बना रहता है। कोई पुरुष कभी छोटे बच्चे के पार नहीं जाता। हर पुरुष की आकांक्षा स्त्री में माँ को खोजने की होती है और स्त्री की आकांक्षा पुरुष में बच्चे को खोजने की होती है। इसलिए जब कोई एक पुरुष एक स्त्री को गहरा प्रेम करता है तो वह छोटे शिशु जैसा हो जाता है। और प्रेम के गहरे क्षण में स्त्री माँ जैसी हो जाती है। उपनिषद के ऋषियों ने आशीर्वाद दिया है नव-विवाहित युगलों को कि तुम्हारे दस बच्चे पैदा हों और अंत में ग्यारहवां तुम्हारा पति तुम्हारा बेटा हो जाए। उन्होंने बड़ी ठीक बात कही है।

लेकिन माँ से अगर बच्चे को प्रेम की सीख न मिल पाई--बेशर्त प्रेम की--फिर कहां सीखेगा? पहली पाठशाला ही चूक गई। और अगर लड़की को अपने बाप से प्रेम न मिल पाया, वह किसी भी पुरुष को प्रेम न कर पाएगी। कुआं पहले झरने पर ही जहरीला हो गया। और फिर जब तुम प्रेम से उलझन में पड़ते हो तब तुम्हारे साधु-संन्यासी खड़े हैं सदा तैयार कि जब तुम उलझन में पड़ो, वे कह दें, हमने पहले ही कहा था कि बचना कामिनी-कांचन से, कि स्त्री सब दुःख का मूल है। वे कहेंगे, हमने पहले ही कहा था कि स्त्री नरक की खान है।

तुम्हारे शास्त्र भरे पड़े हैं स्त्रियों की निंदा से। पुरुषों की निंदा नहीं है, क्योंकि किसी स्त्री ने शास्त्र नहीं लिखा। नहीं तो इतनी ही निंदा पुरुषों की होती, क्योंकि स्त्री भी तो उतने ही नरक में जी रही है जितने नरक में तुम जी रहे हो। लेकिन चूंकि लिखने वाले सब पुरुष थे, पक्षपात था, स्त्रियों की निंदा है। किसी तुम्हारे संत-पुरुषों ने नहीं कहा कि पुरुष नरक की खान। स्त्रियों के लिए तो वह भी नरक की खान है, अगर स्त्रियां पुरुष के लिए नरक की खान हैं। नरक दोनों साथ-साथ जाते हैं--हाथ में हाथ। अकेला पुरुष तो जाता नहीं; अकेली स्त्री तो जाती नहीं। लेकिन चूंकि स्त्रियों ने कोई शास्त्र नहीं लिखा--स्त्रियों ने ऐसी भूल ही नहीं की शास्त्र वगैरह लिखने की--चूंकि पुरुषों ने लिखे हैं, इसलिए सभी शास्त्र पोलिटिकल हैं; उनमें राजनीति है; वे पक्षपात से भरे हैं।

Friday, December 5, 2014

Is all Political Partys are Same ?


प्रिय प्रधानमन्त्री जी,  व् आपके सभी सहयोगियों को सआदर प्रणाम ।
इन बातों को मै पिछले कई सालों से सभी राजनितिक दलों व् सरकारों से कहने की कोशिश कर रहा हूँ पर उनकी ही तरह आप और आपके तथाकथित ब्यूरोक्रेट्स ध्यान नहीं दे रहे मुझ आविष्कारक की तरफ, जो की इस देश का दूर्भाग्य है शायद ।
मैं कई बड़ी समस्याओं को तो चुटकी में हल करने की सामर्थ्य रखता हूँ , जेसे क़ि रेलवे फाटक या स्टेशन पर आम इंसानो को कट मरने से बचा सकती है मेरी तकनीक , रसोईं गैस के सिलेण्डर या प्रैशर स्टोव को बम बनने से रोक सकता हूँ  ( All Accepted by DST India ) और इन में से कुछ को तो महामहिम पूर्व राष्ट्र् पति जी ने अपनी आँखों से देखा और सराहा भी है , अवार्ड - ट्रॉफ़ी - और चेक भी मिल चूका है , परंतु ज़मीनी स्तर पर लागू नहीं हुआ कुछ भी। आप अपने सूत्रो से पता कर सकते हैं ,  आप सब से अनुरोध है कि आधार कार्ड UID - ADHAR बनाने कि प्रक्रिया पर तुरंत रोक लगाई जाये और उसमे कुछ और आविष्कारक सुधार जोड़ कर [ जिसमे कि कई मेरे पास हैं और कई अन्य मुझे लगता है कि और हो सकते हैं ] इस आधार कार्ड के द्वारा देश हित और सुरक्षा और अन्य कई समस्याओं से सीधे समाधान मिल सकता है, जेसे कि इसे लागू करते ही अपराध व अपराधियों कि गतिविधियों पर 90% तक कमी तुरंत आ सकती है |
एक बात और कि मेरे तरीके से अगर इसे बनाया जाये तो भारत सरकार को इस संदर्भ में कोई लागत नही लगानी होगी | बात क्यूंकि देश के परम हित से जूडी है व बहुत ही ज्यादा सवेंदनशील हैं | कुल मिला कर मैं कहना चाह रहा हूँ कि मेरी तकनीकों द्वारा भारत को आर्थिक, वैज्ञानिक, स्वास्थ्य, सुरक्षा व अन्य कई समस्याओं पर सीधे हल मिल सकते हैं , मेरे पास अन्य भी कई लगभग दो दर्जन से ज्यादा { DST } द्वारा स्वीक्रत व 4 ग्रांटेड पेटेंट हैं जो कि आम लोगो का जीवन कई तरह कि दुर्घटनाओं से बचा सकते हैं व जीवन सुगम बना सकते हैं | बौद्धिक सम्पदा अधिकार क़ानून मेँ मेरी सोच को लागू करते ही इस देश में आविष्कारो की बाढ़ आ जायेगी जो कि भारत को तत्काल ही बेहतर परिणामों से तुरंत अवगत करवा ही देगी !
बात कुछ यूँ है की जब तक किसी भी देश के आविष्कारकों को उनकी ठीक जगह नहीं मिलती तब तक वो देश सही मायनों में किसी भी दिशा में तरक्की नहीं कर सकता !

आप अगर लोगों में नैतिक मूल्य नहीं भर सकते तो ये सारी कवायद बेकार साबित होगी. अभी तो सभी अनैतिक लोग शीर्षासन कर अपने को नैतिक साबित कर रहे हैं ! ज्यादा ज्ञानी बूध्हिमान व अति सोच विचार करने वाला हमेशा परेशान एवं दुखी रहने के साथ ह्रदयहीन होने कि ओर अग्रसर रहता है , यानी की अपने ही पैरों को काटकर सुन्दर बैसाखियाँ बनाने को प्रयासरत रहता है !
इंसान अपनी ही बनायी कहावत की तरह संसार का जला हूआ परमात्मा को भी फूंक फूंक कर पीने की कोशिश करता है ।

https://www.blogger.com/blogger.g?blogID=5243132517424378695#editor/target=post;postID=7703856296758642597;onPublishedMenu=allposts;onClosedMenu=allposts;postNum=14;src=link

Copy to : President of Iindia ,
PMO INDIA , Supreme court of India , UID ADHAR ,
DST Iindia , Ministry of Home Afferes , Ministry of Human Resources etc.



आपका

अनूभवि अज्ञानी
अगस्त्य नारायण शुक्ल

+919868477936
New Delhi 110026.

ईश्वर पर विश्वास कीजिये - क्योंकि बहूत से सवाल ऐसे हैं जिनका ज़वाब गूगल के पास भी नहीं है ।
" The Problems That Exist in The World Today Can Not Be Solved By The Level of Thinking That Created Them "

"ALBERT EINSTEIN"

Wednesday, December 3, 2014

POSTED ON PM WEBSITE INDIA


प्रिय प्रधानमन्त्री जी, स आदर प्रणाम ।
        आप और आपके तथाकथित ब्यूरोक्रेट्स ध्यान नहीं दे रहे मुझ आविष्कारक की तरफ, जो की इस देश का दूर्भाग्य है शायद । मैं कई बड़ी समस्याओं को तो चूटकी में हल करने की सामर्थ्य रखता हूँ । आप अपने सूत्रो से पता कर सकते हैं ।

आपका

अनूभवि अज्ञानी
अगस्त्य नारायण शुक्ल

+919868477936
+911128313152
New Delhi 110026.

ईश्वर पर विश्वास कीजिये - क्योंकि बहूत से सवाल ऐसे हैं जिनका ज़वाब गूगल के पास भी नहीं है

Thursday, November 27, 2014

Innovations & Problems


if i am at wrong address please send it to Mr. Prime Minister & DST & ADHAR Person.

प्रिय आत्म्जन,
        आप सब से अनुरोध है कि आधार कार्ड UID - ADHAR बनाने कि प्रक्रिया पर तुरंत रोक लगाई जाये और उसमे कुछ और आविष्कारक सुधार जोड़ कर [ जिसमे कि कई मेरे पास हैं और कई अन्य मुझे लगता है कि और हो सकते हैं ] इस आधार कार्ड के द्वारा देश हित और सुरछा और अन्य कई समस्याओं से सीधे समाधान मिल सकता है, जेसे कि इसे लागू करते ही अपराध व अपराधियों कि गतिविधियों पर 90% तक कमी तुरंत आ सकती है |
एक बात और कि मेरे तरीके से अगर इसे बनाया जाये तो भारत सरकार को इस संदर्भ में कोई लागत नही लगानी होगी | बात क्यूंकि देश के परम हित से जूडी है व बहुत ही ज्यादा सवेंदनशील हैं तो मै ज्यादा जानकारी अभी उपलब्ध नहीं करा सकता , ठीक समय पर अवश्य बताऊँगा |कूल मिला कर मैं कहना चाह रहा हूँ कि मेरी तकनीकों द्वारा भारत को आर्थिक, वैज्ञानिक, स्वास्थ्य, सुरछा व अन्य कई समस्याओं पर सीधे हल मिल सकते हैं |
एक बात और कि मेरे पास अन्य भी कई लगभग दो दर्जन से ज्यादा { DST } द्वारा स्वीक्रत व 4 ग्रांटेड पेटेंट हैं जो कि आम लोगो का जीवन कई तरह कि दुर्घटनाओं से बचा सकते हैं व जीवन सुगम बना सकते हैं |मेरी सोच को लागू करते ही इस देश में आविष्कारो की बाढ़ आ जायेगी जो कि भारत को तत्काल ही बेहतर परिणामों से तुरंत अवगत करवा ही देगी !

आपका
अनुभवी अज्ञानी !

AGASTYA NARAIN SHUKLA
310,DDA FLATS, JAIDEV PARK, PUNJABI BAGH EAST,
NEW DELHI, INDIA.  shukla1970@gmail.com  info@anshukla.com 
Mo : +919868477936 

" The Problems That Exist in The World Today Can Not Be Solved By The    Level of Thinking That Created Them "  "ALBERT EINSTEIN"

ईश्वर पर विश्वास कीजिये - क्योंकि बहूत से सवाल ऐसे हैं जिनका ज़वाब गूगल के पास भी नहीं है

Copy to PMO INDIA
               UID ADHAR
               DST

Tuesday, September 9, 2014

प्रिय नरेंद्र मोदी जी, हो सकता है थोड़ी सी शर्म भी आये आपको – पर............

प्रिय नरेंद्र मोदी जी, हो सकता है थोड़ी सी शर्म भी आये आपको – पर उसके लिये माफ़ी !

बात कुछ युऊँ है की जब तक किसी भी देश के आविष्कारकों को उनकी ठीक जगह नहीं मिलती तब तक वो देश सही मायनों में किसी भी दिशा में तरक्की नहीं कर सकता !

आप अगर लोगों में नैतिक मूल्य नहीं भर सकते तो ये सारी कवायद बेकार साबित होगी. अभी तो सभी अनैतिक लोग शीर्षासन कर अपने को नैतिक साबित कर रहे हैं ! ज्यादा ज्ञानी बूध्हिमान व अति सोच विचार करने वाला हमेशा परेशान एवं दुखी रहने के साथ ह्रदयहीन होने कि ओर अग्रसर रहता है ! इंसान अपनी ही बनायी कहावत की तरह संसार का जला हूआ परमात्मा को भी फूंक फूंक कर पीने की कोशिश करता है !

अंत में बस इतना की हर शाख पे उल्लू बैठे हैं , अंजामे गुलिस्तां क्या होगा ? 


" The Problems That Exist in The World Today Can Not Be Solved By The
   Level of Thinking That Created Them "

"ALBERT EINSTEIN"

अगस्त्य नारायण शुक्ल



https://www.blogger.com/blogger.g?blogID=5243132517424378695#editor/target=post;postID=7703856296758642597;onPublishedMenu=allposts;onClosedMenu=allposts;postNum=14;src=link